बोधात्मक भाषाविज्ञान

गिलेस फ़ॉकनर

पिछले 25 वर्षों में बोधात्मक भाषाविज्ञान का उद्भव भाषा, संकल्पनात्मक प्रणाली, मानव बोध और समान्य अर्थ संरचना के अध्ययन में एक शक्तिशाली दृष्टिकोण के रूप में हुआ है।

 

भाषा के अंतर्गत यह मूल संकल्पनात्मक वर्गों यथा काल व स्थान, दृश्य व घटना, वस्तुएं एवं प्रक्रियाएं, गति एवं स्थिती, बल एवं प्रोत्साहक आदि को संबोधित करता है। यह ध्यान एवं दृष्टिकोण, स्वत्व एवं इच्छा जैसे विचारत्मक एवं प्रभावात्मक वर्गों से संबंधित बोधकारी तत्वों को संबोधित करता है। (टाल्मी, 2000, पृ.3) ऐसा करने के लिए यह व्याकरण की एक संवृद्ध परिकल्पना क विकास करता है जो कि मूलभूत बोधात्मक योग्यताओं को परिलक्षित करती है। ये योग्यताएं निम्न हो सकती हैं: (लैंगेकर, 1987, 1991)

संरचित संकल्पनाओं के बहुस्तरीय संगठन का निर्माण करने की योग्यता,
किसी स्थिती के अमूर्त रूप के विभिन्न स्तरों की परिकल्पना करने की योग्यता,
असदृश संरचनाओं के पहलूओं के बीच सादृश्यता स्थापित करना, और
उसी स्थिती का वैकल्पिक तरीकों से अन्वय करना।

बोधात्मक भाषाविज्ञान मानता है कि भाषा का अध्ययन भाषा के प्रयोग का अध्ययन है और यह कि जब कभी हम किसी भाषिक कार्यकलाप में संलग्न होते हैं हम अनजाने में विशाल बोधात्मक एवं सांस्कृतिक संसाधनों का प्रयोग करते हैं, रूपों एवं प्रारूपों से आमुख होते हैं, एक साथ कई संपर्क स्थापित करते हैं, सूचनाओं की विशाल श्रेणी का समन्वय करते हैं और सृजनात्मक प्रतिचित्रण, विस्थापन एवं विस्तारण में संलग्न होते हैं। भाषा अर्थ का "प्रतिनिधित्व" नहीं करती है; यह किसी खास सांस्कृतिक प्रारूप एवं बोधात्मक संसाधनों वाली किसी खास संदर्भ में अर्थ की संरचना के लिए प्रेरित करती है। बहुत ही कम ऐसे व्याकरण हैं जो कि क्लिष्ट बोधात्मक कार्यों को करने के लिए प्रेरित करते हुए हमें इस तरह की संवृद्ध मानसिक धाराओं के साथ मार्गदर्शन करती हैं। इस प्रकार, बोधात्मक भाषाविज्ञान का एक बड़ा अंश अर्थ की सृजनात्मक ऑन-लाईन संरचना पर केन्द्रित हैं क्योंकि संवाद संदर्भ में प्रकट होता है। (फ़ॉकनर व स्वीट्स्टर, 1996; स्वीट्स्टर, 1991) अर्थविज्ञान एवं व्यावहारिक अर्थविज्ञान के बीच की विभाजन रेखा विलीन हो जाती है और सत्य-आश्रित सृजनात्मकता गायब हो जाती है।

भाषा एवं उक्ति के वे पहलू जो भाषा के अलंकार-शास्त्र की परिधि में मान लिए गए थे, जैसे रुपक (लाकौफ़ व जान्सन, 1980, 1991; स्वीट्स्टर 1990) एवं गुणोक्ति अलंकार, (राड्डेन, पेन्थर, थोर्नबर्ग, बार्सीलोना) उन्हें बोधात्मक भाषाविज्ञान में पुनर्स्थापित किया गया है। इन्हें सशक्त परिकल्पनात्मक प्रतिचित्रण माना जाता है जो कि मानवीय सोच के केन्द्र में हैं और न केवल कविताएं हीं बल्कि विज्ञान, गणित, धर्म, दर्शन शास्त्र एवं दैनंदिनी सोच एवं संवाद को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं । (लाकौफ़ व जान्सन, 1980, 1991; लाकौफ़ व नूनेज़, 2001)

महत्वपूर्ण बात यह है कि सोच एवं भाषा संशरीर हैं। परिकल्पनात्मक संरचना का उत्थान हमारी ज्ञानेन्द्रिय अनुभव एवं स्नायविक संरचनाओं से होती हैं। संकल्पनाओं की संरचना में आदर्श सम्मिलित हैं; कारण समाहित एवं सृजनात्मक है। एक व्याकरण अंतत: एक स्नायविक तंत्र होता है। व्याकरणों की प्रकृति मानवीय स्नायविक तंत्रों की प्रकृति होती है।(लाकौफ़ व जान्सन, 1999) भाषा के संगठन में मौलिक भूमिका निभानेवाली बोधात्मक क्षमता किसी भाषा विशेष से संबद्ध नहीं होती। इन क्षमताओं में समरूपता, पुनरावृत्ती, दृष्टिकोण एवं परिप्रेक्ष्य, रूपाधार (figure-ground) संगठन एवं परिकल्पनात्मक एकीकरण शामिल है।(फ़ॉकनर व टर्नर, 1998, प्रेस में)

पिछली सदी के सातवें और आठवें दशक में लेन टाल्मी के अलंकार और आधार, रोनाल्ड लैंगेकर के बोधात्मक व्याकरण की रूपरेखा, जार्ज लाकौफ़ का रूपक अलंकार, ’गेस्टाल्ट’, वर्गों, एवं आदर्शों (लाकौफ़, 1987) पर किए गए अनुसंधान, फ़िलमोर का रूप अर्थविज्ञान (फ़िलमोर, 1982) और फ़ॉकनर का मानसिक अन्तर (फ़ॉकनर, 1985, 1994) पर किए गए कार्यों के साथ ही बोधात्मक भाषाविज्ञान की नींव रख दी गई थी। आज इस प्रतिमान में कार्य करने वाले विद्वानों की संख्या सैकड़ों में है और इस दिशा में कई सिद्धांतों एवं उनके प्रयोगों पर विशाल मात्रा में प्रकाशित साहित्य उपलब्ध हैं। प्रस्तुत लघु विश्वकोशीय लेख इस नई परंपरा में जन्मी खोज संपत्ती, आगमनात्मक अध्ययन एवं इनके प्रयोगों को समुचित ढ़ंग से प्रस्तुत नहीं कर सकता। विवरणात्मक चित्र प्राप्त करने के लिए मैंने ग्रन्थ सूची में कुछ संकेत दिए हैं। (जानसेन व रेडेकर, 2000; तोमासेलो, 1998; च्यूकेन्स व जिरार्ट्स, आगामी) इस लेख के अगले भागों में मैने बोधात्मक भाषाविज्ञान के कुछ मूलभूत बातों का खाका खींचा है।

१. व्याकरण और बोध

व्याकरण और बोध के संबंध का विस्तृत अध्ययन टाल्मी (2000) और लैंगेकर (1987, 1991) के मूलभूत कार्य में किया गया है। टाल्मी व्याकरणीक व्यवस्थाओं द्वारा परिकल्पनात्मक वर्गों पर निदर्शित बड़े प्रतिबंधों को दर्शाते हैं। उदाहरण के तौर पर संख्या न कि रंग, और संख्या के अंतर्गत एकवचन, द्विवचन, बहुवचन न कि ‘सम’, ‘विषम’, ‘दर्जन’ या ‘असंख्य’। स्थानिक संदर्भ (आकाश के पार, मेज के उस पार) न कि यूक्लिडियन (ज्यामितीय) संदर्भ। बहुधूरिता, बंधिता एवं विभाजितता की स्थिती। धूरिता, परिप्रेक्ष्य (‘दरवाजा धीरे से खुला और दो लोग अंदर आए’ बनाम ‘दो लोगों ने धीरे से दरवाजा खोला और अंदर आए’), अनुक्रमणिकता (‘घाटी में कुछ घर हैं’ बनाम ‘कभी-कभी घाटी में एक घर होता है’), दृश्य और स्तरीयता।

लैंगेकर दर्शाते हैं कि किस तरह व्याकरण दृश्य एवं घटनाओं पर वस्तुस्थिती/स्थान विशिष्ट (trajector/landmark) संगठन को अधिरोपित करता है (‘मेज के नीचे चिराग है’ और ‘चिराग मेज के नीचे है’ एक ही तरह के स्थानिक संबंध को (वस्तुस्थिती (trajector) और स्थान विशिष्ट (landmark) का विपर्यय करने पर) व्यक्त करते हैं । रेखाचित्र (profiling) लैंगेकर की बोधात्मक व्याकरण में एक दूसरी महत्वपूर्ण परिकल्पना है: ‘कर्ण’ शब्द 90 डिग्री वाले त्रिकोण के संकल्प का आह्वान करता है: यही शब्द त्रिकोण के अन्य गुणों के बिना ‘कर्ण’ नहीं होगा। ‘मैंने इसे गलाया’ वाक्य में क्रिया ‘गलाना’ एक पूरी कार्य श्रेणी को रेखित करता है जिसमें कारण और परिवर्तन तरल स्थिती की ओर उन्मुख होती है। ’यह आसानी से गल गया’ में, केवल परिवर्तन ही रेखित होता है, हालांकि कारण का आह्वान तब भी होता है। ‘यह अंतत: गल गया’ में केवल परिणामत्मक स्थिती ही रेखित होती है, लेकिन अरेखित (unprofiled) परिवर्तन का आह्वान होता है। लैंगेकर बहुत विस्तार में उन तरीकों का विश्लेषण करते हैं जिनमें घटक संरचनाओं का साम्यता और व्याख्या के द्वारा समन्वीकरण कर एक एकीकृत संरचना का निर्माण किया जाता है: एक स्वनिमिक एकीकरण (जैसे ‘jar lid’ /ज़ार लिड/ ज़ग का ढ़क्कन) ‘ज़ग’ और ‘ढ़क्कन’ के अर्थ के एकीकरण को बिम्बित करता है। (लैंगेकर, 1987, 1999, वान होएक, 1997)

व्याकरण द्वारा परिलक्षित परिकल्पनात्मक संरचना के अन्य महत्वपूर्ण पहलू जो अनेकानेक भाषाओं में (टाल्मी, 2000) पाए गए हैं, वे हैं:


कल्पनात्मक गति

उदाहरण:

The blackborad goes all the way to the wall.
ब्लैकबोर्ड हर तरफ़ से होते हुए दिवार तक जाता है।


घटना एकीकरण


उदाहरण:


The ball rolled in
गेंद अंदर उछली।
The candle blew out.
मोमबत्ती बुझ गई।
I kicked the door shut.
मैंने दरवाजा लात मारकर बंद कर दिया।


बल गतिकी


उदाहरण:


The ball kept rolling
गेंद उछलती चली गई।
He refrained from closing the door.
उसने दरवाजा बंद करने से खुद को रोके रखा।


बल गतिकी का प्रयोग अमूर्त तर्कशास्त्र और संवाद कार्य की सुविधा स्थितियों में भी होता है। (स्वीट्स्टर, 1990)

भाषा जिस तरह से स्थान को संरचित करती है वह भाषावैज्ञानिकीय और मनोवैज्ञानिकीय तौर पर ध्यानाकर्षक है। इस मामले में कोई भी दो भाषाएं समान नहीं है यद्यपि आम सिद्धांत समान होते हैं। हम सभी अपनी भाषाओं में भौतिक स्थान का निर्माण असाधारण रूप से पेचीदा तरीकों से करते हैं जिसका हमें ज्ञान भी नहीं होता। भ्रमकारी रूप में आम दिखने वाले संबंधबोधक शब्द जैसे ’में’, ’ऊपर’, ’के बाहर’ आदि स्थानिक अर्थ के विस्तृत जालतंत्र को पारिभाषित करते हैं जिनमें सैकड़ों आपस मे जुड़े तंत्र होते हैं। इन आपस में जुड़े हुए तंत्रों मे कुछ आदर्श और केन्द्रिय होते हैं। कुछ वाक्यों की तुलना कीजिए:


The plane flew over the field.
हवाई जहाज़ मैदान के ऊपर उड़ा।
The post office is over the hill.
डाकघर पहाड़ी के ऊपर है।
The log rolled over.
लकड़ी का कुंदा लुढ़का।
The party is over.
पार्टी समाप्त हो गई।
He had to do it over.
उसे फिर से करना पड़ा।
He overlooked it.
उसने इसे नज़रअंदाज किया।
He looked it over.
उसने इसे फटाफट देखा।
He oversaw it.
उसने इसका निरीक्षण किया।


बोधात्मक भाषाविज्ञानियों द्वारा इस विषय पर उत्कृष्ट कार्य किया गया है (लिन्डनर, 1982; ब्रुगमान, 1981; हेर्सकोवित्स, 1986; वान्देलोइसे, 1991; टाल्मी, 2000) और सुस्पष्ट संगणकीय प्रारूपों (रेजिएर, 1996) ने मानवीय स्थान संरचना की भाषाई क्षमता की महती बोधात्मक क्लिष्टता को प्रमाणित कर दिया है।

२. रूपक (अलंकार) सिद्धांत


बोधात्मक भाषाविज्ञान में दूसरा मूलभूत कार्य जो कि पहले वाले से अनवरत रूप से संबद्ध रहा है, वह है पिछले बीस सालों में रूपक (अलंकार) सिद्धांत का अहम विकास। लाकोफ़ और जान्सन (1980) द्वारा प्रतिपादित, सिद्धान्त की यह धारा इस आधार पर टिकी है कि रूपक महज़ एक आलंकारिक युक्ति नहीं है, बल्कि इससे बहुत परे, यह हमारी सभी सोचों के मूल में है और प्रादुर्भाव की योजना में, रूपक, जो कि मानवीय अनुभवों और हमारे शारीरिक इन्द्रीयज्ञान, कार्य और भावनाओं का स्नायविक जोड़ों के स्रोत प्रक्षेत्रों पर आधारित है, ही वह है जो अमूर्त तर्क, वैज्ञानिक और गणितीय सोच, व दार्शनिक अनुमान करने की संभावना पैदा करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो रूपक सामान्य रूप से भाषा एवं संस्कृति को संभव बनाता है। मस्तिष्क शरीर का भाग है और रूपक इसे वो शक्ति देता है जो इसके पास है।

बर्कले अनुसंधान समूह ने खोज में जो पाया वह यह था कि स्रोत प्रक्षेत्रों का विधिवत प्रयोग रूपक प्रतिचित्रण के द्वारा लक्ष्य प्रक्षेत्रों की संरचना में किया गया। उदाहरण के लिए, घटना की संरचना के बारे में हमारी बात करने और सोचने का ढ़ंग सामन्य तौर पर गति के रूप में होता है। इस रूपकीय प्रतिचित्रण में, परिस्थितियां स्थान होती हैं, परिस्थितियों में बदलाव स्थान में बदलाव हो जाती है, कारण बल होती हैं, उद्देश्य लक्ष्य हो जाता है, साधन लक्ष्य के रास्ते हो जाते हैं, निर्देशित कार्य निर्देशित गति होता है आदि, आदि। इसका गहन परिलक्षण तब होता है जब हम भाषा के शाब्दिक और व्याकरणिक गुणों का प्रयोग घटनाक्रम को व्यक्त करने में करते हैं:


He went crazy.
वह दीवाना हो गया।
She entered a state of euphoria.
वह परमानंद की अवस्था में प्रवेश कर गई।
The clothes are somewhere between wet and dry.
कपड़े भीगे और सूखे के कहीं बीच में हैं।
The home run threw the crowd into a frenzy.
होम रन ने भीड़ को बावला कर दिया।
She walked him through the problem.
उसने उसे समस्या से सक्षात्कार करवाया।
I have hit a brick wall.
मैने एक इंट की दीवार को मारा है।
Do it any way you can.
इसे जैसा भी चाहो करो।
We are moving ahead/at a standstill. (लाकौफ़ व जान्सन, १९९९)
हम आगे बढ़ रहे हैं/ठहरे हुए हैं।


ये अकेले उदाहरण नहीं हैं; रूपक आधारित संरचना हमारी अधिकांश परिकल्पनात्मक व्यवस्थाओं में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, इनमें वे सब शामिल हैं जो विज्ञान एवं गणित में विकसित हुए हैं। (लाकौफ़ व नूनेज़, 2001) न ही ये कोई भाषा प्रदत्त सुविधा है। गति के स्रोत प्रक्षेत्र की संरचना और अनुमानों को लक्ष्य प्रक्षेत्र की घटनाओं और कार्यों की ओर एक सुव्यवस्थित ढ़ंग से प्रक्षेपित किया जाता है जो हमारे लिए लक्ष्य प्रक्षेत्र में पहले से अनुपलब्ध एक संवृद्ध परिकल्पना को पारिभाषित करता है।


इसी प्रकार, समय का परिकल्पन स्थान एवं गति के संदर्भ में होता है। अंग्रेजी में, समय “एक स्थिर निरीक्षक की ओर चलती हुई वस्तु है जो कि उसके बाद भी चलती रहती है" या “वस्तुएं हैं जो कि किन्हीं चलायमान निरीक्षक के संदर्भ में स्थिर हैं":


The time will come/has passed.
समय आएगा/चला गया।
Chistmas is approaching/is coming up.
क्रिसमस आने वाला है/ आ रहा है।
The summer just zoomed by.
गर्मी बस झूमती चली गई।
We are getting close to Christmas.
हम क्रिसमस के नजदीक पहुंच रहे हैं।
We passed the deadline.
हम अंतिम समय पार कर चुके हैं।
We've reached the end of May already.
हम मई के अंत में पहले से ही पहुंच चुके हैं।

घटना संरचना का रूपक बल गतिकी के रूपक सिद्धांत के साथ संबंधों को उद्धृत करता है। कारण बल हैं, और इतना ही नहीं, यदि ये ‘तार्किकता’ के धरातल पर कार्य करें, तो ये आपको सही या गलत निष्कर्षों की तरफ ले जाएंगे या भगा देंगे, ये आपको हाशिए पर ले आएंगे या बलात्‌ आपको किसी खास विचार की ओर धकेल देंगे।


इस प्रकार के पारंपरिक रूपकों को विस्तारित और पुन:-विस्तारित कर संकल्पनात्मक समझ को संवृद्ध किया जा सकता है। समय उड़ सकता है, रेंग सकता है और गायब हो सकता है। शेक्सपीयर की एक उक्ति में, जहां हेक्टर नेस्टर से मिलता है, समय एक चलायमान व्यक्ति बन जाता है जो श्रद्धेय नेस्टर का हाथ थामता है (ट्रॉईलस एण्ड क्रेसिडा, 4.5.202-3, गिब्स ???? से उद्धृत):


Let me embrace thee, good old chronicle,
That has so long walk'd hand in hand with time.
अरे भले इतिहास मुझे तू गले लगाने दे
जो चला समय के साथ हाथ में हाथ मिलाए

3. मानसिक अंतर और परिकल्पनात्मक एकीकरण


मानसिक अंतर संकल्पनाओं की छोटी-छोटी गठरियां (packets) होती हैं जिनका निर्माण जब हम बोलते या सोचते हैं तब स्थानीय क्रियाकलाप एवं समझ के लिए होता है। ये आंशिक समूह होते हैं जिनमें तत्व होते हैं और इनकी संरचना ढ़ांचों एवं बोधात्मक प्रारूपों के द्वारा होती है। ये आपस में जुड़ी होती हैं और सोच व संवाद के प्रकटन साथ-साथ इनमें सुधार किया जा सकता है।


मानसिक अंतरों का प्रकटन संवाद में प्रचुरता से होती हैं, एक-दूसरे में गहन रूप में प्रतिचित्रित होती हैं और स्थिरन विस्थापन, दृष्टिकोण व केन्द्र के लिए अमूर्त मानसिक संरचना उपलब्ध कराती हैं। इस तरह ये कार्यशील याददाश्त एवं वृहत्तर याददाश्त में संबंधों के एक विस्तृत जाल को बनाए रखते हुए हमें अपने ध्यान को किसी भी समय किसी आंशिक और साधारण संरचनाओं की ओर निर्दिष्ट करने की अनुमति देती है।


उदाहरण के तौर पर, यदि हम कहें कि “असल में, रिचर्ड बर्टन एलिज़ाबेथ टेलर से प्यार करता है परंतु उस सिनेमा में वह उसे मार देता है”, तो इस कथन से हम दो मानसिक अंतरों की स्थापना करते हैं, एक सच्चाई के लिए और एक उस सिनेमा के लिए; सच्चाई में रिचर्ड बर्टन का एक तद्रूप (मानें कि मार्क एन्थोनी) उस सिनेमा में है, और सच्चाई में एलिज़ाबेथ टेलर का एक तद्रूप (मानें कि क्लियोपेट्रा) उस सिनेमा में है। मानसिक अंतरों के बीच का जोड़ एक मानसिक अंतर के तत्वों को उनके तद्रूपों के जरिए दूसरे मानसिक अंतरों को उपलब्ध कराती हैं (जैसे मार्क एन्थोनी को बर्टन के जरिए)। मानसिक अंतर भाषा में अपारदर्शिता, पूर्वाग्रह, प्रतितथ्यात्मकता, और काल एवं काल भाव से निबटने का एक सामान्य और सुगढ़ साधन उपलब्ध कराती है। उदाहरण के तौर पर निम्न वाक्य लीजिए:


1957 में, राष्ट्रपति एक शिशु था।


जो कि किसी संवाद में आता है जहां के आधार मानसिक अंतर पर जार्ज बुश को तात्कालीन राष्ट्रपति के रूप में माना गया है। “1957 में” में एक नया “1957” अंतर पैदा करता है। यदि हम मानें कि “राष्ट्रपति” मूल रूप में बुश को इंगित करता है तो इसका तद्रूप “1957 में बुश” उपलब्ध हो जाएगा। दूसरी तरफ़, यदि हम मान लें “राष्ट्रपति” “किसी” को इंगित करता है तो “1957” इस नए मानसिक अंतर में वह “किसी” एक शिशु और एक राष्ट्रपति दोनों हो सकता है। इस बार वाक्य का मतलब होगा कि एक शिशु 1957 में राष्ट्रपति था। इस प्रकार की बहु-उपलब्धता की संभावनाएं उसी वाक्य को यह अनुमति देती है कि जिन मानसिक अंतरों को स्थापित किया गया है और जो तद्रूप जोड़ उपलब्ध हैं उनके आधार पर विभिन्न जोड़ों/संबंधों के लिए प्रेरित करे।


इस सामान्य जोड़ पथों के लघु विवरण में संकेत परिघटनाओं की एक बड़ी श्रेणी बाहर ही रह जाती है। उदाहरण के लिए निम्न दो वाक्यों में अंतर


यदि मैं तुम होता तो मैं मुझसे घृणा करता।
यदि मैं तुम होता तो मैं अपने आप से घृणा करता।
विवृत संकेत, जैसे
यदि वूडी एलेन जुड़वां पैदा होता तो वे एक दूसरे के लिए दुखी होते।
या स्वीट्स्टर क महा-रूपकीय हेतुमय, जैसे
यदि ईले डी ला सिटी पेरिस का दिल है तो सैने इस की महाधमनी।


भाषा की इन विशेषताओं के पीछे, बोधात्मक भाषाविज्ञान ने लगातार ज्यादा सामान्य बोधात्मक प्रक्रियाओं के कार्य के लिए साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं। मानसिक अंतरों के बीच प्रतिचित्रण सोच के सामान्य संगठण का हिस्सा हैं। हालांकि भाषा इस तरह की प्रतिचित्रणों के अध्ययन के लिए काफी आंकड़े उपलब्ध कराती है, वे अपने आप में खासतौर पर भाषिक नहीं हैं। वे सामान्यतया परिकल्पनात्मक प्रक्रिया में दर्शित होते हैं। मानसिक अंतरों पर सामान्य बोधात्मक क्रिया का एक बहुत ही महत्वपूर्ण उदाहरण, जो कि सार्वभौमिक रूप से हमारी सोच में परिलक्षित होती है, परिकल्पनात्मक एकीकरण है।


परिकल्पनात्मक एकीकरण में एक दूसरे पर प्रतिचित्रित होने वाली मानसिक अंतरों के संजालों की स्थापना एवं उनके नए मानसिक अंतरों में विभिन्न प्रकार से मिश्रण शामिल है। दैनंदिनी सोच व संवाद में हम परिकल्पनात्मक एकीकरण संजालों का प्रयोग सुव्यवस्थित रूप में करते हैं। कुछ एकीकरण नए होते हैं, अन्य अधिक अंत:गामी होते हैं, और विरले ही हम इस प्रक्रिया की ओर चेतनावस्था में ध्यान देते हैं, क्योंकि यह इतना ही व्यापक है। किसी परिकल्पनात्मक एकीकरण संजाल में, आगत मानसिक अंतरों से आंशिक संरचना को नए मिश्रित मानसिक अंतर में प्रक्षेपित किया जाता है जो स्वयं ही अपनी गतिक (कल्पनात्मक) संरचना का विकास कर लेती है।


उदाहण के लिए इस प्रतितथ्य को लें


फ्रांस में, वाटरगेट निक्सन को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता।


इस वाक्य में अमेरिकी और फ्रांसीसी राजनीतिक प्रणालियों में अंतर का अर्थ प्रेरित होता है। यह श्रोता से अपेक्षा करता है कि वह अमेरिकी राजनीति और फ्रांसीसी राजनीति के लिए अलग-अलग आगत अंतरों का निर्माण करे। उसे आगत अंतरों के बीच प्रतिचित्रणों को अवश्य स्थापित करना पड़ता है और तब उसे चयनात्मक ढ़ंग से एक मिश्रित अंतर की तरफ प्रक्षेपित करनी पड़ता है जिसमें कि निक्सन और वाटरगेट फ्रांसीसी राजनीती से संबद्ध होते हैं। इस तरह कल्पना से उद्भूत इस मानसिक अंतर (निक्सन को नुकसान नहीं होता आदि) की संरचना इन दोनों देशों की राजनीतिक सच्चाई में एक अंतर्ज्ञान उपलब्ध करवाएगा।

मानवीय जीवन के अधिकांश पहलूओं में, न कि मात्र भाषा में, परिकल्पनात्मक एकीकरण संजाल का उपयोग होता है। इस ध्यानाकर्षक बोधात्मक क्षमता का अध्ययन कई प्रकार के प्रक्षेत्रों में हुआ है जैसे गणित, कार्य एवं प्रारूप, वितरित बोध, माया एवं धर्म, मानवशास्त्र एवं राजनीति विज्ञान। (ज़िकोव्स्की, प्रेसे में; हचिन्स, आगामी; सोरेन्सेन, 2000; लाकौफ़ व नूनेज़, 2001; लिड्डेल, 1998; टर्नर, 2001) ऐसा कहा गया है कि परिकल्पनात्मक एकीकरण की क्षमता का उद्भव जैविकीय रुप में एक स्तर तक, द्वि-क्षेत्रीय सृजनात्मकता को प्राप्त करने के लिए हुई है जिसमें कि कला, सृजनात्मक यंत्र निर्माण, धार्मिक सोच और व्याकरण के बोधात्मक रूप से आधुनिक मानवीय विशेषताओं के लिए एक आवश्यक आवस्था शामिल है। (फ़ॉकनर व टर्नर, 2002)

सारांश
बोधात्मक भाषाविज्ञान भाषा की दृष्टिगोचर संरचना के आगे जाती है और बोध, जो व्याकरण, कल्पना, संवाद और सोच की भी रचना करती है, के कार्य में नेपथ्य में छुपी महती क्लिष्टतर प्रक्रियाओं की छानबीन करती है। बोधात्मक भाषाविज्ञान का सैद्धान्तिक अंतर्ज्ञान बहु-संदर्भों में गहन आगमनात्मक निरीक्षण और मनोविज्ञान व स्नायविक विज्ञान में किए गए प्रयोगों पर आधारित है। (गिब्स, 1994; मैक्नील, 2001;कूल्सन, 2001; मैण्डलर, 1992;जेन्ट्नर, प्रेस में) बोधात्मक भाषाविज्ञान, खासकर रूपक सिद्धांत और परिकल्पनात्मक एकीकरण सिद्धान्त, के परिणामों को कई प्रकार के भाषाविज्ञान से इतर के कार्यों में किया गया है।

अनुवाद:
नारायण कुमार चौधरी
216, माण्डवी छात्रावास,
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
नई दिल्ली-67


 


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Published in Gaveshanaa, April-June, 2008 vol.:90/2008 Central Institute of Hindi, Agra. 2008. pp.:11-18 (This is a translation of the article “Cognitive Linguistics” from Encyclopedia of Linguistics by Gilles Falkner, 2006)